मंगलवार, 25 दिसंबर 2012

...आसमानों की परवाज़ कर


चल  उठ  एक  नई  ज़िंदगी  का  आगाज़  कर,
पेट खाली ही सही आसमानों की परवाज़ कर ।


मान    भी    ले    अब   यह   ज़ि‍द   अच्‍छी   नहीं,
''मि‍ल गया 'यूटोपि‍या' का रास्‍ता'' ये आवाज़ कर ।


लबों पे आने मत दे नाम तख्‍तो-ताज का,
बस   उसको   दुआ   दे,   'जा  राज  कर । 


लाख  करे  कोई  उजालों की बात, बहक मत, 
तू फ़क़त ज़िंदा रह और ज़िंदगी पे नाज कर ।
                                                              १९९५  ई०

                        ०००००

मंगलवार, 27 नवंबर 2012

और कुछ न था


कल जहाँ 
हमने तय की थीं दि‍शाएँ 
अपने-अपने रास्‍तों की  

वहाँ, 
जल में तैरती हुई स्‍मृति‍याँ थीं 
और कुछ न था 

स्‍मृति‍यों में 
फड़फड़ाती हुई मछलि‍याँ थीं 
और कुछ न था 

मछलि‍यों में 
भड़कती हुई तृषा थीं 
और कुछ न था 

तृषा में 
कि‍लोले करते हुए मृग थे 
और कुछ न था 

मृगों में 
मैं था, तुम थी, सारा संसार था 
और कुछ न था 
                                - 1999 ई०
        ००० 


रविवार, 28 अक्तूबर 2012

क़त्‍ल के बाद


गि‍लास भर पानी की तरह 
पी जाता हूँ अपनी नींद को 

आँखें जैसे खाली गि‍लास 

देखता हूँ, एक कमरे की 
रोशनी से बाहर का अँधेरा 

दूर-दूर तक अँधेरा 

अँधेरे में सोया हे जग सारा 
खोया-खोया-सा 
अपने सुख-चैन में 
मुग्‍ध-तृप्‍त 

भीतर टटोलता हूँ अपने
 कुछ मि‍लता नहीं ! 
कमरा भर रोशनी के क़त्‍ल के बाद 
अपने भीतर 
पाता हूँ बहुत-सी चीज़ें
अँधेरे में साफ़-साफ़ 
                                            -2001 ई0 

        ०००००

रविवार, 21 अक्तूबर 2012

आँधि‍याँ


जहाँ  दो  पल  बैठा  करते  हम-तुम, 
उन दरख्‍़तों को उड़ा ले गई आँधि‍याँ। 

छुआ करते जि‍न बुलंदि‍यों से आसमाँ, 
उन  परबतों  को उड़ा ले गई आँधि‍याँ। 

महक-महक  उठते  जो  ख़ुशबू  से, 
उन  खतों को उड़ा ले गई आँधि‍याँ। 

सि‍लवट से जि‍नकी भरा होता बि‍छौना, 
उन  करवटों  को  उड़ा ले गई आँधि‍याँ। 

जुटाती    ताक़त    जो    लड़ने    की, 
उन हसरतों को उड़ा ले गई आँधि‍याँ। 

पुख्‍़ता  और  भी जि‍नसे होती उम्‍मीदें, 
उन तोहमतों को उड़ा ले गई आँधि‍याँ। 
                                                           -1995 ई0
                 ००००००

गुरुवार, 11 अक्तूबर 2012

लम्‍हों की रवि‍श


देखना,  तुम 
अब छूटा के तब छूटा 
         - तीर / लगेगा ऐसा ....और 
तनी हुई प्रत्‍यंचा की 
          टूट जाएगी 
      डोर --- साँसों की 


और ... देखना 
शीशे - सी पि‍घलती 
बर्फ - सी घुलती 
रि‍स - रि‍स कर बहती 
क़ त रा - क़ त रा 
छुटती - छटपटाती 
आखि‍र,  आख़ि‍री तक 
टूटती - फूटती - दरकती 
            लम्‍हों की रवि‍श 


    दहशत में चाँद 
    भटका करेगा रात - रात भर 
    जगमग - जगमग जगमगाकर जुगनू 
    बाँट चुके होंगे अपने हि‍स्‍से की रोशनी, 
    लटका रहेगा रात का कंबल काला 
    रंगों की ओट सो चुकी होंगी कि‍रणें 
    मछलि‍याँ तैरेंगी हवा में 
    जल अटकेगा कंठ में फाँस की तरह 
    टूटे तारे - सा छि‍टक जाएगा आँख से 
                                        एक आँसू 
    नि‍वीड़ एकांत अंतरि‍क्ष में 
    वह दीप्‍त आभा रह जाएगी 
                                                     -2000 ई0 

            *********** 

शनिवार, 29 सितंबर 2012

जि‍ओ हज़ारों साल

चि‍. अन्‍वय क्षीरसागर 

           जन्‍मदि‍न की हार्दि‍क बधाई व शुभकामनाएँ ! 






                     जिओ मेरे लाल 

    
                              जीवेत् शरद: शतम्  ********************

बुधवार, 26 सितंबर 2012

जैसे ईश्‍वर


जैसे ईश्‍वर 
नि‍हारता है धरती को 
फि‍र करता है उर्वर परती को 
वह रचता है एक कि‍सान में मेहनत का जज्‍बा 
और भेज देता है गौएँ चरने के लि‍ए 
पूरी फ़सल चाट कर 
गौमाताएँ करती हैं जुगाली 

फि‍र वही जज्‍बा 
काम करता है 
फि‍र जोतता है खेत, कि‍सान 
गौमाताओं की संतानों को फाँदकर 
कोचकता है तुतारी उनके पुष्‍ट पुट्ठों पर 
अपना पुश्‍तैनी गुस्‍सा नि‍कालते हुए 

मुसकराता है ईश्‍वर 
अपनी रचनात्‍मक ज़िद पर 
और रचता है फि‍र 
                                           2001 

      **********

मंगलवार, 18 सितंबर 2012

आते हैं आने वाले...


ये दुनि‍या है
आते हैं आनेवाले
जाते हैं जानेवाले,

सेतु नहीं है
फिर भी
इस पार से उस पार तक
उस पार से इस पार तक

 आते हैं आने वाले......

                                   1997
     *******

रविवार, 9 सितंबर 2012

उफनती नदी के ख्‍़वाब में


उफनती नदी के ख्‍़वाब में
आती हैं
कभी, तटासीन आबाद बस्‍ति‍याँ
तो कभी
तीर्थों के गगनचुंबी कलस और
तरूवरों की लम्‍बी क़तारें
लेकि‍न
जब-जब भी उमड़ पड़ा है उफान
तैरकर बचती नि‍कल आई हैं बस्‍ति‍याँ।
वहाँ के बासिंदों की फ़ि‍तरत में
शामि‍ल होता रहा है गहरे पानी का कटाक्ष
वे पार करते रहे हैं कई-कई सैलाब
अपने हौसलों के आर-पार

जब-जब भी झाँकती है नदी
अपनी हद से बाहर
नि‍कलकर दूर जा बसते रहे हैं देवता
और लौटते रहे हैं तीर्थयात्रि‍यों के संग-संग
वापस अपने धाम तक
भक्‍तों की प्रार्थना सुनने के लि‍ए।
बाँचते रहे हैं शंख और घड़ि‍याल
दीन-दुखि‍यों की अर्जि‍याँ

जब-जब भी कगारों को
टटोलती है जलजिह्वा
नि‍हत्‍थी समर्पि‍त होती रही हैं जड़ें
जंगल के जंगल बहते गए
फि‍र भी बीज उगाते रहे हैं
क़तारों पे क़तारें फि‍र से
दो क़दम पीछे ही सही
फि‍र से खड़ी होती रही हैं
तरूवरों की संतानें

  **********


शनिवार, 1 सितंबर 2012

तलघर


मछलि‍याँ नहीं रहती थीं। 
वहाँ हाड़-माँस के 
जीते-जागते मानुस 
खदेड़ दि‍ए जाते थे। 
अँधेरी गुफाओं में 
रोशनी और हवा तक 
को मनाही थी आने की। 
सख्‍त पहरे में 
फ़क़त कोड़ों की फटकार 
और कुछ भारी-भरकम 
पैरों की आवाज़ सुनाई पड़ती थी 

आत्‍माओं - सी भटकती 
यातनाएँ 
झपट पड़ती थीं 
और बलात् प्रवेश कर जाती थीं काया में।
यातनाएँ पिघलती थीं बंदियों की शिराओं में 
बहती थीं लहू के साथ 
फूटकर कि‍सी नासूर की 
शक्‍ल अख्तियार करते हुए घाव से।
देह सि‍हरने डरा करती थी और 
डर-डर कर सि‍हर जाती थी 
एक अजब सड़ांध - सी फैली 
होती थी आसपास जो 
प्राणवायु का कि‍रदार अदा करती हुई 
घुलती थी ऊपर -नीचे 
होते हुए सीने के भीतर 
चेहरे के कि‍सी सुराख से 

*           *          *           * 

मछलि‍याँ नहीं छि‍पायी जाती थीं 
सचमुच के 
बड़े-बड़े ख़ज़ाने होते थे 
ति‍लस्‍मी गहराइयों में 
रंग बदलकर मटमैले 
होते थे रत्‍न-जवाहरात 
बड़े ही रहस्‍यमय होते थे ख़ज़ाने 
और इनमें छि‍पा होता था रहस्‍य 
जय-पराजय का  
लूटने और लुट जाने का 

तलघर के अंतस्‍तल में 
निर्वस्‍त्र होता था आलमगीर 
क़ैद होते थे शाही ज़िंदगी के सारे रहस्‍य 
यहीं कि‍सी ख़ाने में 
क़ैद होती थीं सुंदरियाँ 
क़ैद होते थे ग़ुलाम और 
क़ैद होती थी कोई ललकार 
ज़ि‍द्दी, लड़ाकू और ज़हीन हस्‍ति‍यों के साथ 
यहाँ तक कि कभी-कभी 
साज़ि‍शी करामातों के तहत 
जहाँपनाह भी 
जहाँ से बचने के लि‍ए लेते थे पनाह यहाँ 

  *            *             *             * 

कभी तो 
मरी हुई मछलि‍याँ 
पानी की तलाश में नि‍कलेंगी 
भूगर्भ से, 
अपने इति‍हास से बेख़बर 
कोई न कोई पुश्‍त खोदेगी खाई 
अपनी बुनि‍याद के लि‍ए 
जब नहीं टकराएँगी अस्‍थियाँ उनके औज़ारों से 
वे गहराई तक जाएँगे धरती के सन्‍नाटे में, 
पाताल तक पहुँचते-पहुँचते 
उन्‍हें सुनार्इ देंगी तलघर में दफ़न सि‍सकि‍याँ 
अंतरि‍क्ष की सुरक्षि‍त ध्‍वनि‍यों में 
तब, वे उजागर करेंगे तलघर का इति‍हास 
और षड्यंत्र की सभ्‍यता को 

       ************ 


रविवार, 26 अगस्त 2012

क्‍यूँ पुकारना ?


क्‍यूँ पुकारना
              ना
ना यूँ
      पुकार - ना

सुनता नहीं जब कोई
         क्‍यूँ पुकारना ?

         *****

मंगलवार, 21 अगस्त 2012

वि‍कल्‍प


कल
दुनि‍या के बीज मि‍लेंगे
अभी तो व्‍यस्‍त हैं
दुनि‍या के नाश के आवि‍श्‍कारक

वि‍कल्‍प
जब भी कोई
मि‍ल जाएगा पृथ्‍वी का
नष्‍ट कर दी जाएगी दुनि‍या

जि‍सका जी नहीं लगता
कल का इंतज़ार करें
इंतज़ार करे पृथ्‍वी के नष्‍ट होने तक

मुकम्‍मल सोच ले तरकीब
बीजों को हथि‍याने की,
सूँघ ले सारे ठि‍काने
जहाँ, हो सकता है दस्‍तावेज
पृथ्‍वी के वि‍कल्‍प का

       ******

रविवार, 24 जून 2012

लहर थाह लेती है


लहर-बहर 
एक लहर 
लहर सागर की । 
सागर अथाह 
अथाह जलराशि 

'लहर ठहर ज़रा,' 
पुकार-पुकार हारेंगे 

लहर कभी रूकती है क्‍या ! 

लहर 
थाह लेती है सागर की 

     *********

रविवार, 27 मई 2012

अभि‍नय की तरह

छद्म हमें अपनी दुनि‍या में अकेला 
वि‍वश करता है 
                   होने के लि‍ए । 

हम तड़पते हैं और चीख़ नहीं पाते !
कोई भी कर सकता है हमारी मदद 
पर,  हम,  पु का र ते   नहीं !
आतंकि‍त होकर भी आतंकि‍त नहीं होते 
चलते हैं दौड़ने की तरह 
दौड़ते हैं चलने की तरह 

आसपास की चीज़ों को  
शक्‍की की तरह नि‍हारते हैं 
'संदि‍ग्‍ध चीज़ों में वि‍स्‍फोट का ख़तरा है' 
ख़तरे बहुत से हैं 
ख़तरों से बचने के उपाय बहुत से हैं 
बहुत से हैं भय 
                भय से बच सकते हैं 
         पर, बचते नहीं हैं 
                ख़तरों से बच सकते हैं 
          पर बचते नहीं हैं 
                बचकर भी भागते हैं तो बच नहीं पाते 
जैसे-तैसे 
           जी लेते हैं _ अभि‍नय की तरह

             **************

बुधवार, 11 अप्रैल 2012

फि‍र


थकान के बि‍स्‍तर पर बेसुध नींद 
मूर्छा की हद तक 
कभी-कभी मौत की तरह 
बेहद शांत और थि‍र 
                       फि‍र 
एक चुटकी सुबह की 
और मुसकाती धूप 
            पुचकारती नई लंबी यात्रा के लिए 
                  बहलाती-सी कि‍सी बच्‍चे की तरह 
समझा चुकी होती पूरी तरह एक नया काम 

                   ********

रविवार, 26 फ़रवरी 2012

रागरंग


राजा था
बेलबुटों की बुनावट से सजा-धजा महल था
रुत थी मौसम था
वाहवाही थी
साथ-साथ राजा के वाहवाह करनेवालों की


साज थे
फि‍ज़ा में ढलती मौसि‍की थी
गान था
अपनी लय में चढती-उतरती तान थी
नृत्‍य था
अपनी तमाम मुद्राओं में मृदुल नुपूर-नाद लि‍ए


राजा के फ़रमान से
सजी तो थी महफ़ि‍ल मगर
साजिंदें नहीं थे
गायक नहीं था
नर्तकी नहीं थी


कला के पाखंडी उत्‍सव में
उपस्‍थि‍त नहीं थीं उनकी आत्‍माएं
वे तो उनके बुत थे
जि‍न पर अटकी हुई थीं सबकी आंखें

             ***********

बुधवार, 4 जनवरी 2012

नश्‍शा गर्म साँसों का...... !


ये क्‍या अजब बेचैनी है
बेजा रफ़्तार है रग़ों में लहू की
सांसें हैं धौंकनी
पिघलता-सा कुछ उतर रहा है आंखों में
बडी बे-कल  हैं आजकल की घडि‍यां
ये कौन आनेवाला है......
है कि‍सका इंतज़ार ?
............................ !


जैसे पूरब से पि‍घलकर
धरती पर बह आया हो सोना
सब का सब सुनहला-सा
पि‍घला-पि‍घला-सा
कुछ धुँधला कुछ उजला-उजला


कहीं जो झपट पडी हवा
तो गि‍री खलि‍हान से धान की कुछ बालि‍यां
और जाने कहां मि‍ल गई पि‍घलती सुनहली आभा में


इस घास-फूस और पुआल में
जाने कौन गर्मी छि‍पी है
जो महका-महकाकर
गुलाबी करती हैं गर्म सांसों को
चुभती है केवल हवा
हां वही हवा डंक मारकर
सि‍हरती हुई चली जाती है।


उनकी रफ़्तार में शामि‍ल
होता है गर्म सांसों का धुआ
जो उठता है चारों ओर
और ढँक जाता है सारा उजाला
जि‍न्‍हें दि‍खता है वे भी कहां
देख पाते हैं
जो देख पाते हैं वे समझ नहीं
पाते
समझे हुओं को अपने दि‍न
याद आते हैं
जि‍नकी यादों में उतर आती
पुआल की गर्मी
उनकी गर्म सांसों में उतर
आता है एक ख़याल


महज एक ख़याल समझकर
उतरने देते हैं नश्‍शा गर्म सांसों का
कि‍ दि‍न सबके हैं
जब जि‍सके हो तब उसके हो

 *************





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