शुक्रवार, 17 दिसंबर 2010

इंसां को इंसां से........

इंसां को इंसां से  बैर  नहीं है
फि‍र भी इंसां की ख़ैर नहीं है 

ये क़ाति‍ल जुल्‍मी औ' डाकू लुटेरे 
अपने  ही  हैं  सब   ग़ैर   नहीं  हैं 

अच्‍छाई  की   राहें  हैं   हज़ारों
उन पर चलने वाले पैर नहीं हैं 

दूर बहुत दूर होती हैं मंजि‍लें अक्‍सर 
लंबा  सफ़र  है  यह  कोई सैर नहीं है 

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गुरुवार, 25 नवंबर 2010

कुछ लोग ऐसे भी होते हैं

ग़ज़ल 

कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, 
होते हैं और नहीं भी होते हैं। 

सब ढोंग-धतूरे अपने ही मूल्‍क में नहीं, 
अच्‍छे-बुरे लोग हर कहीं होते हैं। 

बेकार पूजते हैं हम अपनी इच्‍छाओं को, 
सब कुछ  पा लेने वाले भी ख़ुश नहीं होते हैं। 

हरे-भरे सपने से जुदा है रोज़गार, 
नहरें खोदने वाले सभी प्‍यासे नहीं होते हैं। 

जि‍से जो समझना था समझा है ख़ुद को, 
सारे ग़लत लोग कभी सही भी होते हैं। 

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रविवार, 14 नवंबर 2010

ऐसा भी क्‍या, कि‍ ...

दर्द ऐसा भी क्‍या
कि‍ कहते बने न सहते बने
घर ऐसा भी क्‍या
कि‍ रहते बने न ढहते बने

दरि‍या-दरि‍या, पानी-पानी
कस्‍ती-कस्‍ती मौज रवानी
मगर ऐसा भी क्‍या
कि‍ रूकते बने न बहते बने

मंजि‍ल-मंजि‍ल, रस्‍ता-रस्‍ता
बस्‍ती-बस्‍ती पैर दस्‍ता
पर ऐसा भी क्‍या
कि‍ उड़ते बने न मुड़ते बने

कौन देगा ख़बर हवा बीमार है
बि‍गड़ती तासीर की दवा बीमार है

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सोमवार, 11 अक्तूबर 2010

तीन टुकड़े

पि‍छले कई दि‍नों से मेरी कच्‍ची पोथी में उपेक्षि‍त-सी ये पंक्‍ति‍यॉं अपने वि‍स्‍तार व पूर्णता की बॉंट जोह रही थीं...इन टुकड़ों को शायद ! यह पता न रहा हो कि‍ कवि‍ता काग़ज़ पर नहीं मन-मानस पर पकती- वि‍कसती हैं। आज मैं इन टुकडों को पूर्ण मानकर (यद्यपि कवि‍ता कभी पूर्ण नहीं होती ) आप सबको सौंपता हूँ......... 

    तीन टुकड़े  

         ( 1.) 

एक पंछी बनाता है घोंसला 

एक पंछी 
बार-बार बनाता है घोंसला
लेकि‍न 
बार-बार आता है तूफ़ान 
बि‍खर जाता है ति‍नका-ति‍नका 
तहस-नहस हो जाता है अरमान 
फि‍र भी 
बचा रहता है हौसला 

बार-बार बनाता है घोंसला 

वह पंछी मैं हूँ 

          ( 2.) 

रचते रहो व्‍यूह 
       तोड़ता रहूँगा 
कठफोड़वे की तरह 
अपने बसेरे के लि‍ए 
       काठ फोड़ता रहूँगा 

लहूलुहान होगा अंतर, तब भी 
       अड़ा रहूँगा 
       अपनी पर 

हँसो और हँसो 
        मेरी मुश्‍कि‍लों को पहाड़ समझकर 

            ( 3.) 

करो, वि‍श्‍वास करो 
कि‍ दि‍शाऍं भटकाएगी नहीं 

घना जंगल है लेकि‍न 
कोई सिंह दहाड़ेगा नहीं 

घोर सन्‍नाटे में 
अँधेरा भूत की तरह भरमाएगा नहीं 

सोचने को नकारात्‍मक बहुत है मगर 
हि‍म्‍मत के आगे हारे है हर बला ज़माने की 

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मंगलवार, 5 अक्तूबर 2010

इन आवाज़ों का...



इन आवाज़ों का क्‍या 
तरह - तरह की शक्‍लें अख्तियार कर लुभाती हैं 
कभी वार करती हैं कटारी बन 
तड़पाती हैं बेहद कसक बन 
और नाउम्‍मीदी में जगाती उम्‍मीद भी 
पर उम्‍मीदों में बेउम्‍मीद कर जाने का शगल हैं पाले हुए 


कहीं कोई सदा है हमारे लिए 
कोई झनकार 
या फिर हलकी - सी खनक ख़तरे की 
कि मौत आए और ख़ामोशी की एक नींद मिले बेहतर 
या कि ख़ौफ़जदा हम मुकर जाए दहशत के ख़याल से 
ख़ुद को हिम्‍मतवर कहलाने के लिए 


ये आवाज़ किसकी है कि सरकता जा रहा है 
रिश्‍ते - नातों का सारा पानी 
मचलते पानी के तेज़ बहाव में तलहटी के रेत की तरह 
तुम भी आना हम भी आऍंगे 
क़तल किसी का भी हो 
पुकारना ज़रूर 
एक बार उम्‍मीद 


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बुधवार, 29 सितंबर 2010

जिओ हज़ारों साल

चि. अन्‍वय क्षीरसागर 

               जन्‍मदिवस की हार्दिक शुभकामनाऍं 

                             जिओ मेरे लाल

मंगलवार, 21 सितंबर 2010

स्‍वप्‍न

बुद्धू !
चॉंद कहीं फलता है क्‍या ?
हॉं, एक आसमानी पेड़ था धरती पर
ऊपर सबसे ऊपर की शाख पर
अटका था चॉंद
और शाखों-टहनियों पर छिटके थे तारे
सच ! सबकुछ झिलमिला रहा था
पूरी धरती - पूरा आसमान

कोई चिडिया नहीं  थी क्‍या ?
बुद्धू !
चिडिया सब सो रही थीं
घोसलों के किवाड बंद थे
कहीं कोई आवाज़ नहीं
बहुत सन्‍नाटा एकदम शांत सब
चिडिया सॉंस भी ले रही थीं या नहीं
कुछ मालूम नहीं ?

दूर-दूर तक फैले इस सन्‍नाटे में
सुनाई पडती है एक पुकार
तभी टूटकर गिर जाता है चॉंद धरती पर
और गु़म होता जाता है कहीं
छिटककर तारे चले जाते हैं न जाने कहॉं ?
नगाडे की आवाज़-सी
टूट पडती है रोशनी
       00000

गुरुवार, 9 सितंबर 2010

रूदन

रूदन
एक गैरमामूली हरकत है
इसका इस्‍तेमाल .जरा बेबसी
और तनहाई में ही किया करें


मॉं याद आए तो देख लें किसी भी
औरत का चेहरा
बहन याद आए तो देख लें किसी भी
औरत का चेहरा
बेटी याद आए तो देख लें किसी भी
‍औरत का  चेहरा


फिर भी न रूके रूलाई तो ची.ख-ची.खकर रोए बेधडक
दहाडे मारते देखेंगी दुनिया तो
आस-पास जमा होंगी औरतें ही
उन्‍हीं में मिल जाएगा कोई चेहरा
मॉं जैसा
बहन जैसा
बेटी जैसा
              ******

बुधवार, 1 सितंबर 2010

जब तूफ़ान आते हैं....

तुम हँसती रहो
खि‍लखि‍लाती रहो
अनाहूत प्रेम सी
मन के कि‍सी कोने में

बॉंस के सूखे पत्‍तों पर फि‍सलती
हवा की कि‍लकारि‍यों से अनभि‍ज्ञ
कि‍सी दावानल की भेंट चढने से
पहले का सूखापन छू न पाए तुम्‍हें
यही प्रार्थना का स्‍वर है तुम्‍हारे लि‍ए

क्‍योंकि‍ जब तू़फ़ान आते हैं न
तो कुछ भी नहीं बचता
.ख्‍वाब तक उड जाते हैं दूर ति‍नके की तरह

जब तूफ़ान आते हैं
तो कुछ भी नहीं बचता
.ख्‍वाब तक उड जाते हैं दूर ति‍नके की तरह
कई - कई दि‍नों तक
नींद का अता-पता नहीं मि‍लता
भूख -प्‍यास तो लगती ही नहीं
हर आदमी फरि‍श्‍ता हो जाता है
कई - कई फरि‍श्‍ते भटकते फि‍रते हैं
जो होश आने पर सहसा पूछ बैठते हैं
''तुम्‍हारी भी कोई दुनि‍या उजडी है क्‍या ‍?''


जब कि‍सी की दुनि‍या उजड. जाती है
तो सारे तू़फ़ान बेमानी हो जाते हैं
दुनि‍या की कोई भी शय कुछ नहीं
बि‍गा़ड पाती वीराने का
       ********

मंगलवार, 24 अगस्त 2010

नुसरत की ऑंखें

नुसरत की आंखें 


समझ नहीं  आता  
वार करती हैं / या प्‍यार करती हैं
 फिर भी बहुत अच्‍छी हैं
नुसरत की आंखें


राह देख चलती हैं इनसे
जल्‍द भांप लेती है खतरा
भीतर तक झांक लेती है अक्‍सर
सबको टोहती रहती
लेकिन
उसको खुलके  बिखरने नहीं देतीं
नुसरत की आंखें


बकरियों की तरह फिरती
जाने कहां कहां दीख जाती
हंसी चुहल से बलखाती
कमसिन  नादां
भरी दुपहरी जेठ की
परछाइ को रौंदती 'जाती है कहां '
 अक्‍सर पूछती हैं
मछली सी तडपती
नुसरत की आंखें  


     *****




शनिवार, 7 अगस्त 2010

प्रेम उन्‍हें...

प्रेम उन्‍हें...



जिन्हें प्रेम  करना नहीं आता
वे बलात्कार  कर रहे हैं
जिन्हें बलात्कार करना नहीं आता 
वे हत्या कर रहे हैं 
जिन्हें हत्या करना नहीं आता 
वे आत्महत्त्या कर रहे हैं 
जिन्हें आत्महत्त्या करना नहीं आता 
वे जीने का साहस  कर रहे हैं 

उनका साहस एक न एक दिन 
सिखाएगा उन्हें प्रेम  
और वे बच सकेंगे  
बलात्कार के अभियोग से 

प्रेम उन्हें  पागल या  दीवाना बना सकता है 
वे बन -बन भटक सकते हैं  लैला - लैला  चिल्लाते हुए  
संगसार के शिकार हो सकते हैं  
लेकिन वे बच सकेंगे  हत्त्यारा होने से  
वे बच सकेंगे आत्महत्त्या से  या बुजदिल होने से 

उनका प्रेम उन्हें 
इतना साहस देगा 
की सारी दुनिया को सिखा सकेंगे प्रेम  
          00000

शुक्रवार, 30 जुलाई 2010

बस ऐसे ही...

रात ऐसे आती है कि उमड़ पड़ी हो
घटा सावन की
और हम हाथों में चराग लिए
घुमते हैं किसी भूले हुए मुसाफिर का
असबाब हो जैसे

एक एक रोआ टटोलते हैं अँधेरे का
और उसकी छुअन में
मशगूल उँगलियों की पोरों तक को
नहला देते हैं रौशनी से

तब भी खुश नहीं हुआ समा तो
कहे देते हैं के एक कोशिश की हमने
और अब चलते हैं
अभी और काम हैं बहुतेरे

के सुबहो होगी तो
चल पड़ेंगे सफ़र में
और तय करेंगे उन दूरियों को
जो सारी रात पसरे रहें हैं ख़्वाबों में
एक लंबे रास्ते तक

हम अपने मानी की तलाश में हैं
और होना हमारा क्योंकर हैं इस दुनिया में
यही साबित हो तो कुछ हो
वर्ना हम तो हैं बस ऐसे ही
और न होते तो कुछ नहीं पर
हैं तो बस ऐसे ही
aaaaaa
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