बुधवार, 4 जनवरी 2012

नश्‍शा गर्म साँसों का...... !


ये क्‍या अजब बेचैनी है
बेजा रफ़्तार है रग़ों में लहू की
सांसें हैं धौंकनी
पिघलता-सा कुछ उतर रहा है आंखों में
बडी बे-कल  हैं आजकल की घडि‍यां
ये कौन आनेवाला है......
है कि‍सका इंतज़ार ?
............................ !


जैसे पूरब से पि‍घलकर
धरती पर बह आया हो सोना
सब का सब सुनहला-सा
पि‍घला-पि‍घला-सा
कुछ धुँधला कुछ उजला-उजला


कहीं जो झपट पडी हवा
तो गि‍री खलि‍हान से धान की कुछ बालि‍यां
और जाने कहां मि‍ल गई पि‍घलती सुनहली आभा में


इस घास-फूस और पुआल में
जाने कौन गर्मी छि‍पी है
जो महका-महकाकर
गुलाबी करती हैं गर्म सांसों को
चुभती है केवल हवा
हां वही हवा डंक मारकर
सि‍हरती हुई चली जाती है।


उनकी रफ़्तार में शामि‍ल
होता है गर्म सांसों का धुआ
जो उठता है चारों ओर
और ढँक जाता है सारा उजाला
जि‍न्‍हें दि‍खता है वे भी कहां
देख पाते हैं
जो देख पाते हैं वे समझ नहीं
पाते
समझे हुओं को अपने दि‍न
याद आते हैं
जि‍नकी यादों में उतर आती
पुआल की गर्मी
उनकी गर्म सांसों में उतर
आता है एक ख़याल


महज एक ख़याल समझकर
उतरने देते हैं नश्‍शा गर्म सांसों का
कि‍ दि‍न सबके हैं
जब जि‍सके हो तब उसके हो

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