बुधवार, 23 जनवरी 2013

कोई नहीं है

बंद दरवाज़ा
लौटा देता है वापस , 
राह अपनी

थकान, दुनी 
हो जाती है जाने से 
आने की 

रास्‍ता 
पहचानने लगा है 

हर मोड़ कुछ 
सीधा हो जाता है 
सहानुभूति‍ में 

कभी भूल से साँकल 
खटखटाने पर  
झूम उठता है ताला 
खि‍लखि‍लाकर बताता हुआ, 
''कोई नहीं है । '' 
                                     १९९८ ई० 
       *** 


1 टिप्पणी:

आर्यावर्त डेस्क ने कहा…

प्रभावशाली ,
जारी रहें।

शुभकामना !!!

आर्यावर्त
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