शनिवार, 29 सितंबर 2012
बुधवार, 26 सितंबर 2012
जैसे ईश्वर
जैसे ईश्वर
निहारता है धरती को
फिर करता है उर्वर परती को
वह रचता है एक किसान में मेहनत का जज्बा
और भेज देता है गौएँ चरने के लिए
पूरी फ़सल चाट कर
गौमाताएँ करती हैं जुगाली
फिर वही जज्बा
काम करता है
फिर जोतता है खेत, किसान
गौमाताओं की संतानों को फाँदकर
कोचकता है तुतारी उनके पुष्ट पुट्ठों पर
अपना पुश्तैनी गुस्सा निकालते हुए
मुसकराता है ईश्वर
अपनी रचनात्मक ज़िद पर
और रचता है फिर
2001
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जैसे ईश्वर,
मेरी कविताएँ
मंगलवार, 18 सितंबर 2012
आते हैं आने वाले...
ये दुनिया है
आते हैं आनेवाले
जाते हैं जानेवाले,
सेतु नहीं है
फिर भी
इस पार से उस पार तक
उस पार से इस पार तक
आते हैं आने वाले......
1997
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रविवार, 9 सितंबर 2012
उफनती नदी के ख़्वाब में
उफनती नदी के ख़्वाब में
आती हैं
कभी, तटासीन आबाद बस्तियाँ
तो कभी
तीर्थों के गगनचुंबी कलस और
तरूवरों की लम्बी क़तारें
लेकिन
जब-जब भी उमड़ पड़ा है उफान
तैरकर बचती निकल आई हैं बस्तियाँ।
वहाँ के बासिंदों की फ़ितरत में
शामिल होता रहा है गहरे पानी का कटाक्ष
वे पार करते रहे हैं कई-कई सैलाब
अपने हौसलों के आर-पार
जब-जब भी झाँकती है नदी
अपनी हद से बाहर
निकलकर दूर जा बसते रहे हैं देवता
और लौटते रहे हैं तीर्थयात्रियों के संग-संग
वापस अपने धाम तक
भक्तों की प्रार्थना सुनने के लिए।
बाँचते रहे हैं शंख और घड़ियाल
दीन-दुखियों की अर्जियाँ
जब-जब भी कगारों को
टटोलती है जलजिह्वा
निहत्थी समर्पित होती रही हैं जड़ें
जंगल के जंगल बहते गए
फिर भी बीज उगाते रहे हैं
क़तारों पे क़तारें फिर से
दो क़दम पीछे ही सही
फिर से खड़ी होती रही हैं
तरूवरों की संतानें
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शनिवार, 1 सितंबर 2012
तलघर
मछलियाँ नहीं रहती थीं।
वहाँ हाड़-माँस के
जीते-जागते मानुस
खदेड़ दिए जाते थे।
अँधेरी गुफाओं में
रोशनी और हवा तक
को मनाही थी आने की।
सख्त पहरे में
फ़क़त कोड़ों की फटकार
और कुछ भारी-भरकम
पैरों की आवाज़ सुनाई पड़ती थी
आत्माओं - सी भटकती
यातनाएँ
झपट पड़ती थीं
और बलात् प्रवेश कर जाती थीं काया में।
यातनाएँ पिघलती थीं बंदियों की शिराओं में
बहती थीं लहू के साथ
फूटकर किसी नासूर की
शक्ल अख्तियार करते हुए घाव से।
देह सिहरने डरा करती थी और
डर-डर कर सिहर जाती थी
एक अजब सड़ांध - सी फैली
होती थी आसपास जो
प्राणवायु का किरदार अदा करती हुई
घुलती थी ऊपर -नीचे
होते हुए सीने के भीतर
चेहरे के किसी सुराख से
* * * *
मछलियाँ नहीं छिपायी जाती थीं
सचमुच के
बड़े-बड़े ख़ज़ाने होते थे
तिलस्मी गहराइयों में
रंग बदलकर मटमैले
होते थे रत्न-जवाहरात
बड़े ही रहस्यमय होते थे ख़ज़ाने
और इनमें छिपा होता था रहस्य
जय-पराजय का
लूटने और लुट जाने का
तलघर के अंतस्तल में
निर्वस्त्र होता था आलमगीर
क़ैद होते थे शाही ज़िंदगी के सारे रहस्य
यहीं किसी ख़ाने में
क़ैद होती थीं सुंदरियाँ
क़ैद होते थे ग़ुलाम और
क़ैद होती थी कोई ललकार
ज़िद्दी, लड़ाकू और ज़हीन हस्तियों के साथ
यहाँ तक कि कभी-कभी
साज़िशी करामातों के तहत
जहाँपनाह भी
जहाँ से बचने के लिए लेते थे पनाह यहाँ
* * * *
कभी तो
मरी हुई मछलियाँ
पानी की तलाश में निकलेंगी
भूगर्भ से,
अपने इतिहास से बेख़बर
कोई न कोई पुश्त खोदेगी खाई
अपनी बुनियाद के लिए
जब नहीं टकराएँगी अस्थियाँ उनके औज़ारों से
वे गहराई तक जाएँगे धरती के सन्नाटे में,
पाताल तक पहुँचते-पहुँचते
उन्हें सुनार्इ देंगी तलघर में दफ़न सिसकियाँ
अंतरिक्ष की सुरक्षित ध्वनियों में
तब, वे उजागर करेंगे तलघर का इतिहास
और षड्यंत्र की सभ्यता को
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