सोमवार, 11 अक्तूबर 2010

तीन टुकड़े

पि‍छले कई दि‍नों से मेरी कच्‍ची पोथी में उपेक्षि‍त-सी ये पंक्‍ति‍यॉं अपने वि‍स्‍तार व पूर्णता की बॉंट जोह रही थीं...इन टुकड़ों को शायद ! यह पता न रहा हो कि‍ कवि‍ता काग़ज़ पर नहीं मन-मानस पर पकती- वि‍कसती हैं। आज मैं इन टुकडों को पूर्ण मानकर (यद्यपि कवि‍ता कभी पूर्ण नहीं होती ) आप सबको सौंपता हूँ......... 

    तीन टुकड़े  

         ( 1.) 

एक पंछी बनाता है घोंसला 

एक पंछी 
बार-बार बनाता है घोंसला
लेकि‍न 
बार-बार आता है तूफ़ान 
बि‍खर जाता है ति‍नका-ति‍नका 
तहस-नहस हो जाता है अरमान 
फि‍र भी 
बचा रहता है हौसला 

बार-बार बनाता है घोंसला 

वह पंछी मैं हूँ 

          ( 2.) 

रचते रहो व्‍यूह 
       तोड़ता रहूँगा 
कठफोड़वे की तरह 
अपने बसेरे के लि‍ए 
       काठ फोड़ता रहूँगा 

लहूलुहान होगा अंतर, तब भी 
       अड़ा रहूँगा 
       अपनी पर 

हँसो और हँसो 
        मेरी मुश्‍कि‍लों को पहाड़ समझकर 

            ( 3.) 

करो, वि‍श्‍वास करो 
कि‍ दि‍शाऍं भटकाएगी नहीं 

घना जंगल है लेकि‍न 
कोई सिंह दहाड़ेगा नहीं 

घोर सन्‍नाटे में 
अँधेरा भूत की तरह भरमाएगा नहीं 

सोचने को नकारात्‍मक बहुत है मगर 
हि‍म्‍मत के आगे हारे है हर बला ज़माने की 

           ************




                                             

13 टिप्‍पणियां:

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

बहुत धार दार टुकड़े हैं ....सुन्दर अभिव्यक्ति

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी रचना 12 -10 - 2010 मंगलवार को ली गयी है ...
कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया

http://charchamanch.blogspot.com/

M VERMA ने कहा…

हौसले से ही घोसला बनता है.

Dr Xitija Singh ने कहा…

वाह ... शब्द नहीं हैं इस रचना की तारीफ में कुछ कहने के लिया ...
अच्छा लगा पढके फोलो किये जा रही हूँ

vandana gupta ने कहा…

तीनो ही टुकडे बेहद शानदार्।

अनामिका की सदायें ...... ने कहा…

सोचने को नकारात्‍मक बहुत है मगर
हि‍म्‍मत के आगे हारे है हर बला ज़माने की

बस सब बातों का सार इसी में हैं.
सुंदर अभिव्यक्ति.

Udan Tashtari ने कहा…

बहुत उम्दा सोच...वाह!

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार ने कहा…

उत्‍तमराव क्षीरसागर जी
नमस्कार !
आपकी 'कच्‍ची पोथी की उपेक्षि‍त-सी ये पंक्‍ति‍यां' अच्छी भली कविताएं हैं , श्रीमान !
बार-बार आता है तूफ़ान
बि‍खर जाता है ति‍नका-ति‍नका
तहस-नहस हो जाता है अरमान
फि‍र भी
बचा रहता है हौसला

क्या बात है !
लहूलुहान होगा अंतर, तब भी
अड़ा रहूंगा
अपनी पर

ख़ूब !
सोचने को नकारात्‍मक बहुत है मगर
हि‍म्‍मत के आगे हारे है हर बला ज़माने की


आपके हौसलों को समर्पित है मेरा यह शे'र -
काटदो बाज़ू मेरे , मेरी ज़ुबां तक खेंचलो
वक़्त ! माथे पर तुम्हारे , मात मैं लिख जाऊंगा


शुभकामनाओं सहित
- राजेन्द्र स्वर्णकार

वाणी गीत ने कहा…

जब तक जीवन है ...हौसला हो तो पंछियों जैसा ...
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति ..!

Dorothy ने कहा…

"बार-बार आता है तूफ़ान
बि‍खर जाता है ति‍नका-ति‍नका
तहस-नहस हो जाता है अरमान
फि‍र भी
बचा रहता है हौसला"

हौसला ही है जो राह की कठिनाईयो में से भी एक सुंदर गीत रच देता है. बहुत सुंदर और प्रेरणादायक रचना. आभार.
सादर
डोरोथी.

Coral ने कहा…

रचते रहो व्‍यूह
तोड़ता रहूँगा
कठफोड़वे की तरह
अपने बसेरे के लि‍ए
काठ फोड़ता रहूँगा

वाह...खूबसूरत

Ashutosh ने कहा…

Apki kavita aur kala dono hi shreshta hai,

The guy sans voice ने कहा…

उम्दा सोच . शुभकामना

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