विवेचन :
मनुष्य की आस्था के रूपांतरण का आख्यान
ओनली गॉड नोज़..........................
समय को आख्यान चाहिए । वह अपना काला चेहरा दीपदीपाती रोशनी में उजला करना चाहता है । समय भयभीत है बदलाव की ऑंधी में , उसकी भीरूता ही उसे चकनाचूर होने से बचा रही है । वह किसी भी चिनगारी का इस्तेमाल कर सकता है । वह धर्म की , भूख की या इसी तरह की कोई मानवीय वस्तु हो सकती है । समय ने चिनगारी के तौर पर भीड़ का भी इस्तेमाल किया है , यह भीड़ जुनूनी या उन्मादी रही है । ऐसी कई भीड़ तरह - तरह के वर्ग , विचार , पंथ , समुदाय और मुखौटे के रूप में , इतिहास में दर्ज़ है । भीड़ युद्ध , क्रांति , आंदोलन और परिवर्तन के रूप में भी इतिहास में उपलब्ध हो जाती है किंतु ऐसी कई उपलब्धियॉं आजकल संदिग्ध हो गई हैं । भीड़ के हाथों में जो मशालें हैं वे रोशनी कम आग ज्यादा उगलती रही हैं , इस आग ने जलाया है वह सब , जिसे मनुष्य संजोता रहा है । मनुष्य की दुनिया तपती - पिघलती - जलती रही है । समय के मुख पर कालिख बढ़ती ही गई ।
तेजिंदर का उपन्यास 'काला पादरी' एक ऐसे देशकाल की कथा है जो अपने कायांतरण की बाट जोह रहा है । इतिहास मानवीय बर्बरता का साक्षी तो रहा ही है किंतु विखंडित वर्तमान जो भुगत रहा है उसे यहॉं बड़ी बारीक़ी से दर्ज़ किया गया है । उत्तर आधुनिकता का ढिंडोरा पिटती दुनिया के एक अँधेरे कोने में अभिशप्त जीवन प्रविधि से गुज़रती पीढ़ी की यातना को स्वर देते हुए कथाकार 'सबाल्टर्न' को मुखर करता है ।
मनुष्य की आस्था का रूपांतरण............................
इस उपन्यास में सरगुजा के आदिवासी इलाके में जनमानस को टटोलता विचार और अतड़ियों को तमड़ती दृष्टि , दोनों गहरे तक जाते हैं तथा जीवन परिवर्तन के केंद्र में 'भूख' को पाते हैं । आदिवासी इलाके में जीवन की छानबीन 'भूख के भूगोल की छानबीन है । यहॉं के जीवन का परिवर्तन आकस्मिक नहीं बल्कि प्रायोजित है । इसाई मिशनरीज़ किस तरह 'भूख' का आश्रय लेकर 'आस्था' के परिवर्तन में लगी है, यहॉं देखा जा सकता है । यहॉं धर्मांतरण की असलियत खुलकर सामने आती है, वह इकहरी नहीं है, उसे वर्तमान और पूर्ववर्ती पीढ़ी की विचार-सरणियों में परखा गया है। धर्म की तार्किकता यहॉं सीधे अतीत की ओर ले जाती है किंतु तर्कप्रणाली अत्याधुनिक है। समाचार-विचार और बाज़ार में फँसा हुआ जीवन छिप-छिपकर झॉंकता है और धर्म को लेकर एक ऐसी 'पॉलिमिक्स' निर्मित हो जाती है जिस पर वैचारिक विखंडन पूरी तरह से हावी है। तमाम सुख-सुविधायुक्त जीवन आख़िर डगमगा जाता है, ओढ़ी हुई विचारधारा और जीवन-प्रणाली उसे भीतर से ऐसा स्खलित करती है कि 'आस्था' ही अपना मार्ग नहीं बदलती बल्कि प्रत्येक अवस्थिति का अतिरेक ही बदल जाता है। वस्तुत: यह मनुष्य की आस्था के रूपांतरण का आख्यान है।
आगमन और प्रस्थान के मध्य......................तनाव की काली नदी...
चरित्र व्यक्ति होते-होते रह जाते हैं जबकि व्यक्ति अक्सर चरित्र हो जाते हैं। जेम्स खाखा एक ऐसा ही व्यक्ति है जो तेजिंदर के यहॉं 'काला पादरी' के चरित्र में परिणत हुआ है। जेम्स खाखा के होने को पुरजोर और संभव बनाता है आदित्य पाल । आदित्य वह चेहरा है जिसके अभाव में इस कथा के सारे चेहरे बेचेहरा हो जाते, एक सहायक चरित्र के रूप में आदित्य ने इस कथा के मुख्य चरित्र को गौण होने से बचाया है। वह एक कर्मचारी है जो भोपाल से स्थानांतरित होकर अम्बिकापुर आता है और अम्बिकापुर से नागपुर स्थानांतरित होकर भोपाल जाता है। उसके आगमन और प्रस्थान के मध्य ही पूरा उपन्यास लगभग यथार्थ से परिघटित होता है। वह कथा-क्षेत्र के भूगोल से धीरे-धीरे वाकिफ़ होता है और जेम्स को जीवन के भूगोल से वाकिफ़ कराता है। दरअसल वही मथता है जेम्स को या जेम्स के इर्द-गिर्द उपस्थित उन सारे लोगों को जिनका सीधा संबंध है आस्था के रूपांतरण से। आदित्य को कथाविवेचन के शास्त्रीय आधार पर हम एक 'सूत्रधार' कह सकते हैं और मौजूदा राजनैतिक दौर की वैधानिक भाषा में एक चश्मदीद गवाह । वह पूरी तरह सफल होता है अवस्थितियों को खंगालकर समय के निक्षेप तक पहुँचने में। उसके अलावा और कौन कह सकता जेम्स से...''तुम्हारा यह सरगुजा, लोकतंत्र का सबसे सस्ता सामंतवादी संस्करण है,'' (पृ0 16) दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में सुदूर जंगली इलाके में ,सघन जनजातीय क्षेत्र में, कहॉं तक व्याप्त है तंत्र का लोकरूप ? यह सोचनीय है। आदित्य की यह बात जेम्स के चेहरे पर 'तनाव की काली नदी' उपस्थित कर देती है, जिसमें जेम्स डूबने को विवश हो जाता है, किंतु आगे की कई घटना-परिघटनाओं में जेम्स का आत्मबोध-आत्ममंथन और जन्मजात सांस्कृतिक आग्रह उसके चरित्र को दृढ़ बनाते हैं।
अतीत - वर्तमान और भविष्य को लेकर जेम्स अपनी परिणति के स्वीकार में लगातार जूझता रहता है। उसका बुद्धि-कौशल, तार्किकता व सत्ता और धर्म की आधुनिक चिंतनशीलता उसे रवींद्रनाथ टैगोर के चरित्र 'गोरा' के काफ़ी निकट ले जाती है किंतु एक बड़ा फ़र्क़ है तीव्रता का। 'गोरा' के ज़हन में आवेग की महती भूमिका है जो धर्म-दर्शन और राजनीति की तार्किकता के साथ गोरा की कार्यप्रणाली को निष्पादित करता है जबकि जेम्स में बौद्धिकता के साथ भावुकता अपने पूरे दम-खम के साथ आकर, जेम्स की कार्यप्रणाली को शिथिलता प्रदान करती है। वैसे यह चरित्रगत बदलाव समय के बदलाव की ही वजह है।
पॉलिटिकल अंडरटोन्स.........................इट्स पार्ट ऑफ़ गेम फ़ॉर देम...
राय साहब सामंत का प्रतिनिधि बनकर उपस्थित होता है। उसके अपने रंग-ढंग हैं अपना ढब और हस्तक्षेप भी। राय साहब के लिए मंत्री भी एक पुर्जा है। करमसाय एक ऐसा ही मंत्री है जो राय साहब के लिए सरकारी सुविधा मुहैया करता है। अवांछित लोगों के द्वारा सरकार या तंत्र का उपभोग सत्ता के दब्बूपन को उजागर करता है। आदित्य व्यवस्था की विसंगति के विरोध का अभाव स्पष्ट महसूस करता है... ''मैं जब अपने इर्द-गिर्द देखता तो मुझे लगता कि ये सारे लोग जिनमें मैं भी शामिल हूँ, उन्हीं लोगों से मान्यता प्राप्त करने की होड़ में लगे हैं, जिनका अपने अंतर्मन से विरोध करते हैं। हम उसी व्यवस्था का संरक्षण चाहते हैं, जिसके विरोध में बड़ी-बड़ी बातें करते हैं । ऐसा शायद हम इसलिए करते हैं कि हम अपना नैतिक साहस कहीं न कहीं खो चुके होते हैं।'' (पृ0 16) यहॉं आदित्य के ज़रिए मनुष्य के नागरिक होने के उपरांत की पतनशीलता मुखर होती है। इस तरह अनेकानेक मानवीय आधारों के पतन से भूख मूर्त होती जाती है। जेम्स और आदित्य के आसपास बिखरी और पसरी भूख्ा उन्हें सोचने के लिए बाध्य करती है, वे चिंतित भी होते हैं किंतु चिंतन और विचारों में भटकने के अलावा कुछ नहीं कर पाते। आदित्य जब बीजाकुरा गॉंव में भूख से मृत्यु संबंधी समाचारों को पढ़ता है तब भूख के आकार की खोज शुरू करता है किंतु सिहर जाता है। 'भूख से मृत्यु, दुनिया की भयावह कल्पना के रूप में उभरती है' जिसकी सच्चाई जानने के लिए वह जीवन के गहरे तक उतरता है। आदित्य और जेम्स दोनों गॉंधीवाद की छानबीन करते हैं। उनके ईस यत्न में गॉंधी की महत्ता और वर्तमान में उनके विचारों की प्रासंगिकता को समझने की कोशिश स्पष्ट झलकती है। यहॉं फासिस्ट हिंदुवाद को गॉंधीवाद से ख़तरा और गॉंधीवाद का राजनैतिक इस्तेमाल भी उजागर होता है। जेम्स और आदित्य अपनी ज़िरह में इस तह तक जाने की कोशिश करते हैं कि गॉंधी ने सचमुच अछूतों के लिए कुछ किया या उनका राजनैतिक इस्तेमाल किया। इस ज़िरह के नतीजे नज़रिये के हिसाब से अलग-अलग हो सकते हैं किंतु महत्वपूर्ण बात यह है कि यह संदर्भ 'सबाल्टर्न' का है, वही जो भूख, दरिद्रता और विधर्म की चपेट में है। आदित्य बार-बार जेम्स के मन-मस्तिष्क को खोदता है 'भूख के प्रति चर्च का रवैया' जानना चाहता है। जेम्स उससे कहता है... ''वह तो पॉलिटिकल अंडरटोन्स पर र्निभर करता है,'' (पृ0 25) यह चर्च के राजनैतिक प्रयोजन की स्पष्टोक्ति है। इसी तरह यह ज़िरह आगे राय साहब ,चर्च, पैलेस और हिंदुवादी सरकार की विकृति को उभारती है। ये सभी 'भूख से मौत' के लिए कुछ कारगर नहीं करते और एकदूसरे का मुँह देखते हैं, इनके अपने-अपने स्वार्थ हैं। अक्सर ऐसा होता है शक्तियों (समर्थों) की अंतर्कलह में सामान्यजन पिसता है। भूख्ा के मूर्तन आदित्य जिस आकार की तलाश करता है उसे जेम्स उसके सम्मुख 'बिरई लकड़ा' की मौत के बहाने सजीव उपस्थित कर देता है और साथ्ा ही यह भी स्थापित करता है कि ग़रीबी या दरिद्रता संपन्न (शक्तिसंपन्न) लोगों के खेल का एक हिस्सा है। जेम्स बार-बार मौजूदा राजनीति में विचारधारा को खंगालता है। वह सोचते हुए महसूस करता है कि घृणा ने हमें ग्रस लिया है।
काला यूरोप.....काली मेम........अमूर्त आकृतियॉं....
जेम्स की सारी चेष्टाऍं मानवीय हैं। वह अनुरक्त है। सोज़ेलिन मिंज उसके आसक्ति के दरक को जान जाती है, वह उसके भीतर दरकती आस्था और विश्वास को देख लेती है। ''सरगुजा एक तरह से काला यूरोप है और तुम काली मेम साहब'' जेम्स का सोज़ेलिन के प्रति यह कथन जेम्स की वाँछा के भैतिक पक्ष का उद्धाटन है। यूरोप, जो कि हमारी संस्कृति का विलोम है, वह उसे सरगुजा में महसूसना चाहता है, तमाम कालिख के बावजूद --यही कालिख संभव बनाती है काली मेम साहब के भोग के स्फूरण को। जेम्स के भीतर बहुत भटकन है। वह सोज़ेलिन में अपना घर तलाशता है। सोज़लिन इस कथा में समय की एक खरोंच है जो दीवारों पर अपने नाख़ून से अमूर्त आकृतियॉं गढ़ती है। वह जेम्स की भटकन से वाकिफ़ है किंतु अपनी प्रतीति के साथ वह स्वयं भी उन्मुक्त है... ''उसने जेम्स को थोड़ी देर के वास्ते इस बात के लिए अभिशप्त कर दिया कि वह उसे मरूस्थल के किसी कुऍं की तरह स्वीकार कर ले। अब रेत के कुओं में मुंडेर तो होती नहीं, और अगर होती भी हो तो उसका कोई पता ठिकाना तो उसने जेम्स को बताया नहीं था। वह एक अंधे कुऍं की तरह थी जिसमें जेम्स उतर रहा था। वह पूरी तरह उसकी गिरफ़्त में था।'' (पृ0 32) क्या यह रूमानियत है? हो न हो किंतु यह राग का प्रकृतिस्थ रूप है जो सुंदर से सुंदरतम की सृष्टि करता हुआ रचता है मनुष्य को। सोज़ेलिन जेम्स के स्पर्श को नहीं नकारती, वह जानती है पूर्वनिर्मित आकृतियों को अपनी इच्छानुसार ढालने की मुश्किलें और वह सफल भी होती है खिलखिलाकर हँसने में या हँसी की खिलखिलाहट को सहेज पाने में।
इट वाज़ ए वार ऑफ़ इमेजेज़.........यू रादर टेम्ड अस...
जेम्स और आदित्य की सोहबत ख़ास मायने रखती है। वे एक दूसरे के ज़रिए अपनी वैचारिकता को मथते हैं। फ़ादर मैथ्यूज़ से मुलाकात के दौरान जेम्स अपनी अतीत पीढ़ी की बात करके अपनी आस्था के मूल में जाना चाहता है जबकि आदित्य के भीतर बैठा अख़बारनवीस फ़ादर को खोद-खोदकर भूख और धर्मांतरण की परतें खोलना चाहता है। फ़ादर बार-बार सारी कारगुजारियों को प्रभु की इच्छा पर थोपकर स्वश्यं को और मिशनरीज़ को निर्दोष बताने का यत्न करता है। जेम्स के पूर्वजों के धर्मांतरण पर वह आदित्य की जिज्ञासा को शांत करने के लिए कहता है.....''इनके पास ईश्वर का कोई इमेज़ नहीं था डियर, जिसकी ओर ये आस भरी निग़ाह के साथ देख सके, जब हम यहॉं आया तो राजा भी अपना देवी को प्लांट कर रहा था। यू नो हाऊ टू प्लांट ए थाट, इट इज़ वेरी इंपार्टेंट, हमने भी प्रभु यीशु की इमेज़ प्लांट कर दी, इट वाज़ ए वार ऑफ़ इमेजेज़, जिसमें जीत हमारी हुई,'' (पृ0 44-45) करोडो देवी-देवताओं की आस्था वाले देश में फ़ादर का यह कथन हास्यास्पद है। आदिवासी शांषित होते रहे हैं,धर्मांतरण के पूर्व राजा(सामंत-जमींदार) और धर्मांतरण के बाद थोपी गई आस्था के द्वारा। फा़दर का यह कथन जेम्स के पूर्वजों को ईश्वर विहीन साबित कर रहा है। 'इट वाज़ ए वार ऑफ़ इमेजेज़' यह एक साम्राज्यवादी तर्क है।यहॉं साम्राज्यवाद धर्म को अस्त्र के रूप में इस्तेमाल कर हावी हुआ है। दुनिया के किसी भी कोने में रहने वाला आदिवासी ईश्वर विहीन नहीं हो सकता क्योंकि उनकी अपनी निजी संस्कृति होती/रही है। आदित्य और फ़ादर की इस बातचीत का जेम्स पर गहरा असर होता है, वह आवेशित होता है ओर फ़ादर की अनुमति लेकर वह भी फ़ादर से सवाल करता है.....''क्या यह सच नहीं कि हमारी इमेजेज़ में पहाड़ थे, नदिया थीं, पेड़ थे,शेर थे , चीते थे, और राजा ने हमें बंधुआ बना दिया, फिज़िकली और इक्नॉमिकली एक्सप्लायट किया, लेकिन आपने क्या ? यू रादर टेम्ड अस, आपने हमें पालतू बना दिया, हमारे लिए हिंदू फंडामेंडलिस्टों और आपमें अब कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं है। हमारी सारी इमेजेज़ छीन ली आप लोगों ने.......''(पृ0 45) जेम्स का आक्रोश लाजिमी है। सच्चाई यहॉं अपने कड़वेपन की बजाय तीखे तेवर लेकर उजागर हुई है। यह जेम्स के चरित्र का अहम हिस्सा है जो उसके भीतर के हाहाकार को प्रकट करता है,दरअसल जेम्स किसी भी वजह से बौना नहीं होना चाहता, वह जीना चाहता है अपने वर्तमान में--अपने पूरे आत्मसम्मान के साथ,वह मुक्त होना चाहता है अतीत की उन परछाइयों से जिसमें राजा दुर्जन साल के वंशज और वहशी लुटेरे हैं, अपमान, ज़िल्लत और ग़ैर संवेदनशीलता से भरा एक गटर है। आत्मसम्मान के साथ जीने की चाह ही जेम्स को अपनी मॉं से असहमति की ओर ले जाती है। मॉं का यह विचार कि वे (जेम्स और उसकी बहन अनस्तासिया) अपना पूरा जीवन चर्च की सेवा में बिताऍं, एक तरह का बंधुआ विचार है। 'विचारों का बंधुआ होना'-- इस तरह से किसी चरित्र के द्वारा हिंदी में शायद पहली बार सोचा गया है। जेम्स के भीतर हाहाकार बढ़ता ही जाता है। उसका अस्तित्वबोध एक बात स्पष्ट कर देता है कि धर्मांतरण--जो भूख मिटाने का कारगर तरीका था वही ईश्वर थोप देता है--विवश कर देता है। थोपे गए ईश्वर और विवशता में जीना बंधुआ जीवन है। जेम्स का अंतर्द्वंद्व जेम्स को निखारता है। ईश्वर या गॉड से उसका कोई झगडा़ नहीं है वह तो उन लोगों पर खफ़ा है जिन्होंने उसके पुरखों से सांस्कृतिक स्वायत्तता छिनी, प्रकारांतर से उसे संस्कारों का अभाव खलता है क्योंकि वह ईसा के सलीब की तरह मिशनरीज़ द्वारा थोपे गए जीवन को ढो रहा है।
सोज़ेलिन मिंज काफ़ी दूर तक जेम्स की हमक़दम है किंतु वह अपनी 'निजता' बचाए हुए है ।उसके भीतर कोई ज़िरह नहीं है या हो भी तो वह प्रकट नहीं हो पाती । धर्मांतरण-- अपनी निजता खोना है।
'सोना रूपा तुरू झबराकस डरणखस.............जिना पानी एदआ चिआ'...
ब्रदर हरपाल आस्था के अंधेपन, ढोंग को मुखर करता है। वह कर्महीनता या अकर्मण्यता व मक्कारी का पोषक है। आदित्य ब्रदर हरपाल को भी टटोलकर बाहर निकालने में सफल होता है।
भटहरा गॉंव में उपस्थित दृश्य जेम्स और आदित्य को प्रभावित कर जाता है। वह बैगा जिसके हाथ में झाड़ू है और जो एक भूख-पीड़ित के उद्धार के उपक्रम में लगा हुआ है, अंधविश्वास का शासक है। आदिवासी समाज में व्याप्त अंधविश्वास यहॉं जीवंत रूप में प्रस्तुत हुआ है। भूखपीड़ित इस दृश्य को और भयावह बना रहा है.... ''वह आदमी जब अपना मुँह खोलता है तो उसका मुँह किसी गुफा की तरह नज़र आता है और लगता है कि वह आसपास खड़े सभी लोगों को निगल जाएगा'' (पृ0 71) वह व्यक्ति आख़िर मर जाता है। बैगा उसकी मृत्यु पर भी अंधविश्वास गढ़ता जाता है। यहॉं लेखक ने 'टेबू' या संस्कृति-भाषा (पबलावर, डुबल, पासल, टांगल, जैसे शब्द ) का उपयोग किया है तथा 'टोटेम' (धर्मप्रतीक) का सहारा लिया है। ''सोना रूपा तुरू झबराकस डरणखस'' और ''जिना पानी एदआ चिआ'' जैसे भाषायी प्रयोग किसी आदिम मिथक की ओर संकेत करते हैं।
धुऑं.....व्हाट इज़ बीयांड स्मोक,..............पॉलिटिकल कल्चर...
जेम्स खाखा के लिए 'राजा' शब्द का विशेष महत्व है। उसके अतीत से सरगुजा के वर्तमान तक और बाइबिल में वर्णित राजा की भूमिका उसे आक्रोश और उदासी से भर देती है। ऐसे समय में वह बिशप स्वामी के पास जाता है, उसका उद्वेलन बना रहता है। वह देखता है कि बिशपस्वामी के दो रूप है एक वह जो सारी जिज्ञासाओं को शांत करता है, दूसरा वह जो बेगाना है, रोमदूत है।
जेम्स दीवारों पर 'गर्व से कहो हम हिन्दू हैं' और 'यहॉं रहना है तो हिन्दू बनकर रहना होगा', जैसी इबारतें पढ़कर सहम जाता है। उसकी भीरूता धर्म-विश्वास की भीरूता है। अपने सामने गुज़र रही जीप, सिर पर कपड़ा बॉंधे और जय बजरंगबली' जैसे कुछ नारे लगा रहे युवकों से उसे ''क्यों बे चिरई...' जैसा उपहासास्पद संबोधन सुनाई पड़ता है साथ ही यह उलाहना ....''चल रे पादरी, मंदिर में तोहे शिवजी बुलाये हैं।'' ये युवक कौन है? इसकी निश्चित पहचान नहीं है किंतु यह तय है कि यह धर्म का उग्र चेहरा है, एक उन्माद है जिसे वह यौवन ढो रहा है जो दिशाहीन है। इसी समय चर्च में एक धमाका होता है, चर्च की दीवार का एक हिस्सा ढह जाता है और जेम्स गहरे सदमे में चला जाता है। यह हादसा चरित्रों के माध्यम से आज के 'पॉलिटिकल कल्चर', उसकी संवेदनहीनता को उजागर करता है तथा चरित्रहीन राजनीति पर प्रहार करता है। इस हादसे की राजनैतिक हलके में तीखी भर्त्सना होती है किंतु कई स्वार्थी चेहरे उभरते हैं। वेन साय, उदित साय और हरेंज साय जैसे लोग अभिजात-संपन्नवर्ग के प्रतीक हैं। इसी समय विदेशी आक्रमणकारियों और विदेशों में पैदा हुए धर्म के दलालों से सतर्कता की बात होती है और अपने धर्म की रक्षा के लिए ताक़त के इस्तेमाल की भी। यहॉं बहुत से संदेह और डर उपजते हैं। दरअसल धर्म कम मृत्यु ज़्यादा डराती है। बम-विस्फोट किसी धर्म को नहीं जानता-पहचानता। यहॉं चर्च, पैलेस, हिंदू फ़ंडामेंडलिस्ट और तमाम राजनैतिक पार्टियॉं संदिग्ध हो जाती है।
सवाल ट्रीटमेंट का.................आग की लपटें......
....क्रमश: .............देखें.......... आख्यान - 2
आगमन और प्रस्थान के मध्य......................तनाव की काली नदी...
चरित्र व्यक्ति होते-होते रह जाते हैं जबकि व्यक्ति अक्सर चरित्र हो जाते हैं। जेम्स खाखा एक ऐसा ही व्यक्ति है जो तेजिंदर के यहॉं 'काला पादरी' के चरित्र में परिणत हुआ है। जेम्स खाखा के होने को पुरजोर और संभव बनाता है आदित्य पाल । आदित्य वह चेहरा है जिसके अभाव में इस कथा के सारे चेहरे बेचेहरा हो जाते, एक सहायक चरित्र के रूप में आदित्य ने इस कथा के मुख्य चरित्र को गौण होने से बचाया है। वह एक कर्मचारी है जो भोपाल से स्थानांतरित होकर अम्बिकापुर आता है और अम्बिकापुर से नागपुर स्थानांतरित होकर भोपाल जाता है। उसके आगमन और प्रस्थान के मध्य ही पूरा उपन्यास लगभग यथार्थ से परिघटित होता है। वह कथा-क्षेत्र के भूगोल से धीरे-धीरे वाकिफ़ होता है और जेम्स को जीवन के भूगोल से वाकिफ़ कराता है। दरअसल वही मथता है जेम्स को या जेम्स के इर्द-गिर्द उपस्थित उन सारे लोगों को जिनका सीधा संबंध है आस्था के रूपांतरण से। आदित्य को कथाविवेचन के शास्त्रीय आधार पर हम एक 'सूत्रधार' कह सकते हैं और मौजूदा राजनैतिक दौर की वैधानिक भाषा में एक चश्मदीद गवाह । वह पूरी तरह सफल होता है अवस्थितियों को खंगालकर समय के निक्षेप तक पहुँचने में। उसके अलावा और कौन कह सकता जेम्स से...''तुम्हारा यह सरगुजा, लोकतंत्र का सबसे सस्ता सामंतवादी संस्करण है,'' (पृ0 16) दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में सुदूर जंगली इलाके में ,सघन जनजातीय क्षेत्र में, कहॉं तक व्याप्त है तंत्र का लोकरूप ? यह सोचनीय है। आदित्य की यह बात जेम्स के चेहरे पर 'तनाव की काली नदी' उपस्थित कर देती है, जिसमें जेम्स डूबने को विवश हो जाता है, किंतु आगे की कई घटना-परिघटनाओं में जेम्स का आत्मबोध-आत्ममंथन और जन्मजात सांस्कृतिक आग्रह उसके चरित्र को दृढ़ बनाते हैं।
अतीत - वर्तमान और भविष्य को लेकर जेम्स अपनी परिणति के स्वीकार में लगातार जूझता रहता है। उसका बुद्धि-कौशल, तार्किकता व सत्ता और धर्म की आधुनिक चिंतनशीलता उसे रवींद्रनाथ टैगोर के चरित्र 'गोरा' के काफ़ी निकट ले जाती है किंतु एक बड़ा फ़र्क़ है तीव्रता का। 'गोरा' के ज़हन में आवेग की महती भूमिका है जो धर्म-दर्शन और राजनीति की तार्किकता के साथ गोरा की कार्यप्रणाली को निष्पादित करता है जबकि जेम्स में बौद्धिकता के साथ भावुकता अपने पूरे दम-खम के साथ आकर, जेम्स की कार्यप्रणाली को शिथिलता प्रदान करती है। वैसे यह चरित्रगत बदलाव समय के बदलाव की ही वजह है।
पॉलिटिकल अंडरटोन्स.........................इट्स पार्ट ऑफ़ गेम फ़ॉर देम...
राय साहब सामंत का प्रतिनिधि बनकर उपस्थित होता है। उसके अपने रंग-ढंग हैं अपना ढब और हस्तक्षेप भी। राय साहब के लिए मंत्री भी एक पुर्जा है। करमसाय एक ऐसा ही मंत्री है जो राय साहब के लिए सरकारी सुविधा मुहैया करता है। अवांछित लोगों के द्वारा सरकार या तंत्र का उपभोग सत्ता के दब्बूपन को उजागर करता है। आदित्य व्यवस्था की विसंगति के विरोध का अभाव स्पष्ट महसूस करता है... ''मैं जब अपने इर्द-गिर्द देखता तो मुझे लगता कि ये सारे लोग जिनमें मैं भी शामिल हूँ, उन्हीं लोगों से मान्यता प्राप्त करने की होड़ में लगे हैं, जिनका अपने अंतर्मन से विरोध करते हैं। हम उसी व्यवस्था का संरक्षण चाहते हैं, जिसके विरोध में बड़ी-बड़ी बातें करते हैं । ऐसा शायद हम इसलिए करते हैं कि हम अपना नैतिक साहस कहीं न कहीं खो चुके होते हैं।'' (पृ0 16) यहॉं आदित्य के ज़रिए मनुष्य के नागरिक होने के उपरांत की पतनशीलता मुखर होती है। इस तरह अनेकानेक मानवीय आधारों के पतन से भूख मूर्त होती जाती है। जेम्स और आदित्य के आसपास बिखरी और पसरी भूख्ा उन्हें सोचने के लिए बाध्य करती है, वे चिंतित भी होते हैं किंतु चिंतन और विचारों में भटकने के अलावा कुछ नहीं कर पाते। आदित्य जब बीजाकुरा गॉंव में भूख से मृत्यु संबंधी समाचारों को पढ़ता है तब भूख के आकार की खोज शुरू करता है किंतु सिहर जाता है। 'भूख से मृत्यु, दुनिया की भयावह कल्पना के रूप में उभरती है' जिसकी सच्चाई जानने के लिए वह जीवन के गहरे तक उतरता है। आदित्य और जेम्स दोनों गॉंधीवाद की छानबीन करते हैं। उनके ईस यत्न में गॉंधी की महत्ता और वर्तमान में उनके विचारों की प्रासंगिकता को समझने की कोशिश स्पष्ट झलकती है। यहॉं फासिस्ट हिंदुवाद को गॉंधीवाद से ख़तरा और गॉंधीवाद का राजनैतिक इस्तेमाल भी उजागर होता है। जेम्स और आदित्य अपनी ज़िरह में इस तह तक जाने की कोशिश करते हैं कि गॉंधी ने सचमुच अछूतों के लिए कुछ किया या उनका राजनैतिक इस्तेमाल किया। इस ज़िरह के नतीजे नज़रिये के हिसाब से अलग-अलग हो सकते हैं किंतु महत्वपूर्ण बात यह है कि यह संदर्भ 'सबाल्टर्न' का है, वही जो भूख, दरिद्रता और विधर्म की चपेट में है। आदित्य बार-बार जेम्स के मन-मस्तिष्क को खोदता है 'भूख के प्रति चर्च का रवैया' जानना चाहता है। जेम्स उससे कहता है... ''वह तो पॉलिटिकल अंडरटोन्स पर र्निभर करता है,'' (पृ0 25) यह चर्च के राजनैतिक प्रयोजन की स्पष्टोक्ति है। इसी तरह यह ज़िरह आगे राय साहब ,चर्च, पैलेस और हिंदुवादी सरकार की विकृति को उभारती है। ये सभी 'भूख से मौत' के लिए कुछ कारगर नहीं करते और एकदूसरे का मुँह देखते हैं, इनके अपने-अपने स्वार्थ हैं। अक्सर ऐसा होता है शक्तियों (समर्थों) की अंतर्कलह में सामान्यजन पिसता है। भूख्ा के मूर्तन आदित्य जिस आकार की तलाश करता है उसे जेम्स उसके सम्मुख 'बिरई लकड़ा' की मौत के बहाने सजीव उपस्थित कर देता है और साथ्ा ही यह भी स्थापित करता है कि ग़रीबी या दरिद्रता संपन्न (शक्तिसंपन्न) लोगों के खेल का एक हिस्सा है। जेम्स बार-बार मौजूदा राजनीति में विचारधारा को खंगालता है। वह सोचते हुए महसूस करता है कि घृणा ने हमें ग्रस लिया है।
काला यूरोप.....काली मेम........अमूर्त आकृतियॉं....
जेम्स की सारी चेष्टाऍं मानवीय हैं। वह अनुरक्त है। सोज़ेलिन मिंज उसके आसक्ति के दरक को जान जाती है, वह उसके भीतर दरकती आस्था और विश्वास को देख लेती है। ''सरगुजा एक तरह से काला यूरोप है और तुम काली मेम साहब'' जेम्स का सोज़ेलिन के प्रति यह कथन जेम्स की वाँछा के भैतिक पक्ष का उद्धाटन है। यूरोप, जो कि हमारी संस्कृति का विलोम है, वह उसे सरगुजा में महसूसना चाहता है, तमाम कालिख के बावजूद --यही कालिख संभव बनाती है काली मेम साहब के भोग के स्फूरण को। जेम्स के भीतर बहुत भटकन है। वह सोज़ेलिन में अपना घर तलाशता है। सोज़लिन इस कथा में समय की एक खरोंच है जो दीवारों पर अपने नाख़ून से अमूर्त आकृतियॉं गढ़ती है। वह जेम्स की भटकन से वाकिफ़ है किंतु अपनी प्रतीति के साथ वह स्वयं भी उन्मुक्त है... ''उसने जेम्स को थोड़ी देर के वास्ते इस बात के लिए अभिशप्त कर दिया कि वह उसे मरूस्थल के किसी कुऍं की तरह स्वीकार कर ले। अब रेत के कुओं में मुंडेर तो होती नहीं, और अगर होती भी हो तो उसका कोई पता ठिकाना तो उसने जेम्स को बताया नहीं था। वह एक अंधे कुऍं की तरह थी जिसमें जेम्स उतर रहा था। वह पूरी तरह उसकी गिरफ़्त में था।'' (पृ0 32) क्या यह रूमानियत है? हो न हो किंतु यह राग का प्रकृतिस्थ रूप है जो सुंदर से सुंदरतम की सृष्टि करता हुआ रचता है मनुष्य को। सोज़ेलिन जेम्स के स्पर्श को नहीं नकारती, वह जानती है पूर्वनिर्मित आकृतियों को अपनी इच्छानुसार ढालने की मुश्किलें और वह सफल भी होती है खिलखिलाकर हँसने में या हँसी की खिलखिलाहट को सहेज पाने में।
इट वाज़ ए वार ऑफ़ इमेजेज़.........यू रादर टेम्ड अस...
जेम्स और आदित्य की सोहबत ख़ास मायने रखती है। वे एक दूसरे के ज़रिए अपनी वैचारिकता को मथते हैं। फ़ादर मैथ्यूज़ से मुलाकात के दौरान जेम्स अपनी अतीत पीढ़ी की बात करके अपनी आस्था के मूल में जाना चाहता है जबकि आदित्य के भीतर बैठा अख़बारनवीस फ़ादर को खोद-खोदकर भूख और धर्मांतरण की परतें खोलना चाहता है। फ़ादर बार-बार सारी कारगुजारियों को प्रभु की इच्छा पर थोपकर स्वश्यं को और मिशनरीज़ को निर्दोष बताने का यत्न करता है। जेम्स के पूर्वजों के धर्मांतरण पर वह आदित्य की जिज्ञासा को शांत करने के लिए कहता है.....''इनके पास ईश्वर का कोई इमेज़ नहीं था डियर, जिसकी ओर ये आस भरी निग़ाह के साथ देख सके, जब हम यहॉं आया तो राजा भी अपना देवी को प्लांट कर रहा था। यू नो हाऊ टू प्लांट ए थाट, इट इज़ वेरी इंपार्टेंट, हमने भी प्रभु यीशु की इमेज़ प्लांट कर दी, इट वाज़ ए वार ऑफ़ इमेजेज़, जिसमें जीत हमारी हुई,'' (पृ0 44-45) करोडो देवी-देवताओं की आस्था वाले देश में फ़ादर का यह कथन हास्यास्पद है। आदिवासी शांषित होते रहे हैं,धर्मांतरण के पूर्व राजा(सामंत-जमींदार) और धर्मांतरण के बाद थोपी गई आस्था के द्वारा। फा़दर का यह कथन जेम्स के पूर्वजों को ईश्वर विहीन साबित कर रहा है। 'इट वाज़ ए वार ऑफ़ इमेजेज़' यह एक साम्राज्यवादी तर्क है।यहॉं साम्राज्यवाद धर्म को अस्त्र के रूप में इस्तेमाल कर हावी हुआ है। दुनिया के किसी भी कोने में रहने वाला आदिवासी ईश्वर विहीन नहीं हो सकता क्योंकि उनकी अपनी निजी संस्कृति होती/रही है। आदित्य और फ़ादर की इस बातचीत का जेम्स पर गहरा असर होता है, वह आवेशित होता है ओर फ़ादर की अनुमति लेकर वह भी फ़ादर से सवाल करता है.....''क्या यह सच नहीं कि हमारी इमेजेज़ में पहाड़ थे, नदिया थीं, पेड़ थे,शेर थे , चीते थे, और राजा ने हमें बंधुआ बना दिया, फिज़िकली और इक्नॉमिकली एक्सप्लायट किया, लेकिन आपने क्या ? यू रादर टेम्ड अस, आपने हमें पालतू बना दिया, हमारे लिए हिंदू फंडामेंडलिस्टों और आपमें अब कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं है। हमारी सारी इमेजेज़ छीन ली आप लोगों ने.......''(पृ0 45) जेम्स का आक्रोश लाजिमी है। सच्चाई यहॉं अपने कड़वेपन की बजाय तीखे तेवर लेकर उजागर हुई है। यह जेम्स के चरित्र का अहम हिस्सा है जो उसके भीतर के हाहाकार को प्रकट करता है,दरअसल जेम्स किसी भी वजह से बौना नहीं होना चाहता, वह जीना चाहता है अपने वर्तमान में--अपने पूरे आत्मसम्मान के साथ,वह मुक्त होना चाहता है अतीत की उन परछाइयों से जिसमें राजा दुर्जन साल के वंशज और वहशी लुटेरे हैं, अपमान, ज़िल्लत और ग़ैर संवेदनशीलता से भरा एक गटर है। आत्मसम्मान के साथ जीने की चाह ही जेम्स को अपनी मॉं से असहमति की ओर ले जाती है। मॉं का यह विचार कि वे (जेम्स और उसकी बहन अनस्तासिया) अपना पूरा जीवन चर्च की सेवा में बिताऍं, एक तरह का बंधुआ विचार है। 'विचारों का बंधुआ होना'-- इस तरह से किसी चरित्र के द्वारा हिंदी में शायद पहली बार सोचा गया है। जेम्स के भीतर हाहाकार बढ़ता ही जाता है। उसका अस्तित्वबोध एक बात स्पष्ट कर देता है कि धर्मांतरण--जो भूख मिटाने का कारगर तरीका था वही ईश्वर थोप देता है--विवश कर देता है। थोपे गए ईश्वर और विवशता में जीना बंधुआ जीवन है। जेम्स का अंतर्द्वंद्व जेम्स को निखारता है। ईश्वर या गॉड से उसका कोई झगडा़ नहीं है वह तो उन लोगों पर खफ़ा है जिन्होंने उसके पुरखों से सांस्कृतिक स्वायत्तता छिनी, प्रकारांतर से उसे संस्कारों का अभाव खलता है क्योंकि वह ईसा के सलीब की तरह मिशनरीज़ द्वारा थोपे गए जीवन को ढो रहा है।
सोज़ेलिन मिंज काफ़ी दूर तक जेम्स की हमक़दम है किंतु वह अपनी 'निजता' बचाए हुए है ।उसके भीतर कोई ज़िरह नहीं है या हो भी तो वह प्रकट नहीं हो पाती । धर्मांतरण-- अपनी निजता खोना है।
'सोना रूपा तुरू झबराकस डरणखस.............जिना पानी एदआ चिआ'...
ब्रदर हरपाल आस्था के अंधेपन, ढोंग को मुखर करता है। वह कर्महीनता या अकर्मण्यता व मक्कारी का पोषक है। आदित्य ब्रदर हरपाल को भी टटोलकर बाहर निकालने में सफल होता है।
भटहरा गॉंव में उपस्थित दृश्य जेम्स और आदित्य को प्रभावित कर जाता है। वह बैगा जिसके हाथ में झाड़ू है और जो एक भूख-पीड़ित के उद्धार के उपक्रम में लगा हुआ है, अंधविश्वास का शासक है। आदिवासी समाज में व्याप्त अंधविश्वास यहॉं जीवंत रूप में प्रस्तुत हुआ है। भूखपीड़ित इस दृश्य को और भयावह बना रहा है.... ''वह आदमी जब अपना मुँह खोलता है तो उसका मुँह किसी गुफा की तरह नज़र आता है और लगता है कि वह आसपास खड़े सभी लोगों को निगल जाएगा'' (पृ0 71) वह व्यक्ति आख़िर मर जाता है। बैगा उसकी मृत्यु पर भी अंधविश्वास गढ़ता जाता है। यहॉं लेखक ने 'टेबू' या संस्कृति-भाषा (पबलावर, डुबल, पासल, टांगल, जैसे शब्द ) का उपयोग किया है तथा 'टोटेम' (धर्मप्रतीक) का सहारा लिया है। ''सोना रूपा तुरू झबराकस डरणखस'' और ''जिना पानी एदआ चिआ'' जैसे भाषायी प्रयोग किसी आदिम मिथक की ओर संकेत करते हैं।
धुऑं.....व्हाट इज़ बीयांड स्मोक,..............पॉलिटिकल कल्चर...
जेम्स खाखा के लिए 'राजा' शब्द का विशेष महत्व है। उसके अतीत से सरगुजा के वर्तमान तक और बाइबिल में वर्णित राजा की भूमिका उसे आक्रोश और उदासी से भर देती है। ऐसे समय में वह बिशप स्वामी के पास जाता है, उसका उद्वेलन बना रहता है। वह देखता है कि बिशपस्वामी के दो रूप है एक वह जो सारी जिज्ञासाओं को शांत करता है, दूसरा वह जो बेगाना है, रोमदूत है।
जेम्स दीवारों पर 'गर्व से कहो हम हिन्दू हैं' और 'यहॉं रहना है तो हिन्दू बनकर रहना होगा', जैसी इबारतें पढ़कर सहम जाता है। उसकी भीरूता धर्म-विश्वास की भीरूता है। अपने सामने गुज़र रही जीप, सिर पर कपड़ा बॉंधे और जय बजरंगबली' जैसे कुछ नारे लगा रहे युवकों से उसे ''क्यों बे चिरई...' जैसा उपहासास्पद संबोधन सुनाई पड़ता है साथ ही यह उलाहना ....''चल रे पादरी, मंदिर में तोहे शिवजी बुलाये हैं।'' ये युवक कौन है? इसकी निश्चित पहचान नहीं है किंतु यह तय है कि यह धर्म का उग्र चेहरा है, एक उन्माद है जिसे वह यौवन ढो रहा है जो दिशाहीन है। इसी समय चर्च में एक धमाका होता है, चर्च की दीवार का एक हिस्सा ढह जाता है और जेम्स गहरे सदमे में चला जाता है। यह हादसा चरित्रों के माध्यम से आज के 'पॉलिटिकल कल्चर', उसकी संवेदनहीनता को उजागर करता है तथा चरित्रहीन राजनीति पर प्रहार करता है। इस हादसे की राजनैतिक हलके में तीखी भर्त्सना होती है किंतु कई स्वार्थी चेहरे उभरते हैं। वेन साय, उदित साय और हरेंज साय जैसे लोग अभिजात-संपन्नवर्ग के प्रतीक हैं। इसी समय विदेशी आक्रमणकारियों और विदेशों में पैदा हुए धर्म के दलालों से सतर्कता की बात होती है और अपने धर्म की रक्षा के लिए ताक़त के इस्तेमाल की भी। यहॉं बहुत से संदेह और डर उपजते हैं। दरअसल धर्म कम मृत्यु ज़्यादा डराती है। बम-विस्फोट किसी धर्म को नहीं जानता-पहचानता। यहॉं चर्च, पैलेस, हिंदू फ़ंडामेंडलिस्ट और तमाम राजनैतिक पार्टियॉं संदिग्ध हो जाती है।
सवाल ट्रीटमेंट का.................आग की लपटें......
....क्रमश: .............देखें.......... आख्यान - 2
2 टिप्पणियां:
यह भी ब्लॉग पर आना चाहिये लेकिन इसे दो तीन किश्त मे दो
सार्थक और गहरी समझ के साथ.. बधाई देने योग्य..
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