रविवार, 9 अक्तूबर 2011

बंद दराज़ से कुछ............आधी-अधूरी दो कवि‍ताऍं

( 1 )

चिंताओं की जड़ें 

जाने कहॉं से आती हैं बातें 
जो अक्‍सर जगाती हैं रात-रात भर 

रात-रात भर खॉंसती है बुढ़ि‍या 
अपने सुनहरे अतीत को याद करती हुई 
कोसती है कॉंटों की तरह चुभती हवा को 
भला-बुरा कहती है रात की कालि‍ख को 

सुबकती है अपनी जुगल जोड़ी के बि‍छोह में 

ख़ुद अपने हाथों से पैर दबाती हुई 
थपथपाती है अपनी आत्‍मा को शांति‍ के लि‍ए 

खोजती है अँधेरे में बेबात की चिंताओं की जड़ें 

                     *****  

( 2 ) 

बस यही होता रहा 

बैठ जाना लोगों के बीच 
और रह जाना चुप 
आसान है या मुश्‍कि‍ल 
यही तय नहीं हो सका अब तक 

लोगों से कहता रहा लोगों की बातें 
लोग सुनाते रहे अपना हाल 
हॉं-हूँ करते हुए 
सलाह मशवि‍रा तक होता रहा 

फ़ायदा लेनेवाले फलते-फुलते रहे 
मौके-बेमौके बुलाते रहे 
घड़ी-दो-घड़ी को साथ बैठने के लि‍ए 
कहते रहे अपनी बात 
सुनना कुछ और देखना कहीं 
बस  यही  होता रहा 

       *****

4 टिप्‍पणियां:

Nityanand Gayen ने कहा…

रात -रात भर खांसती है ...............................
अपने सुनहरे अतीत को याद करतो हुई .......................

यादें बहुत दर्दनाक जाती है कभी- कभी .

vandana gupta ने कहा…

बहुत सुन्दर

बेनामी ने कहा…

bahut khoob

शरद कोकास ने कहा…

उत्तम कवितायें हैं उत्तम ।

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