( 1 )
चिंताओं की जड़ें
जाने कहॉं से आती हैं बातें
जो अक्सर जगाती हैं रात-रात भर
रात-रात भर खॉंसती है बुढ़िया
अपने सुनहरे अतीत को याद करती हुई
कोसती है कॉंटों की तरह चुभती हवा को
भला-बुरा कहती है रात की कालिख को
सुबकती है अपनी जुगल जोड़ी के बिछोह में
ख़ुद अपने हाथों से पैर दबाती हुई
थपथपाती है अपनी आत्मा को शांति के लिए
खोजती है अँधेरे में बेबात की चिंताओं की जड़ें
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( 2 )
बस यही होता रहा
बैठ जाना लोगों के बीच
और रह जाना चुप
आसान है या मुश्किल
यही तय नहीं हो सका अब तक
लोगों से कहता रहा लोगों की बातें
लोग सुनाते रहे अपना हाल
हॉं-हूँ करते हुए
सलाह मशविरा तक होता रहा
फ़ायदा लेनेवाले फलते-फुलते रहे
मौके-बेमौके बुलाते रहे
घड़ी-दो-घड़ी को साथ बैठने के लिए
कहते रहे अपनी बात
सुनना कुछ और देखना कहीं
बस यही होता रहा
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