पिछले कई दिनों से मेरी कच्ची पोथी में उपेक्षित-सी ये पंक्तियॉं अपने विस्तार व पूर्णता की बॉंट जोह रही थीं...इन टुकड़ों को शायद ! यह पता न रहा हो कि कविता काग़ज़ पर नहीं मन-मानस पर पकती- विकसती हैं। आज मैं इन टुकडों को पूर्ण मानकर (यद्यपि कविता कभी पूर्ण नहीं होती ) आप सबको सौंपता हूँ.........
तीन टुकड़े
( 1.)
एक पंछी बनाता है घोंसला
एक पंछी
बार-बार बनाता है घोंसला
लेकिन
बार-बार आता है तूफ़ान
बिखर जाता है तिनका-तिनका
तहस-नहस हो जाता है अरमान
फिर भी
बचा रहता है हौसला
बार-बार बनाता है घोंसला
वह पंछी मैं हूँ
( 2.)
रचते रहो व्यूह
तोड़ता रहूँगा
कठफोड़वे की तरह
अपने बसेरे के लिए
काठ फोड़ता रहूँगा
लहूलुहान होगा अंतर, तब भी
अड़ा रहूँगा
अपनी पर
हँसो और हँसो
मेरी मुश्किलों को पहाड़ समझकर
( 3.)
करो, विश्वास करो
कि दिशाऍं भटकाएगी नहीं
घना जंगल है लेकिन
कोई सिंह दहाड़ेगा नहीं
घोर सन्नाटे में
अँधेरा भूत की तरह भरमाएगा नहीं
सोचने को नकारात्मक बहुत है मगर
हिम्मत के आगे हारे है हर बला ज़माने की
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