मंगलवार, 5 अक्तूबर 2010

इन आवाज़ों का...



इन आवाज़ों का क्‍या 
तरह - तरह की शक्‍लें अख्तियार कर लुभाती हैं 
कभी वार करती हैं कटारी बन 
तड़पाती हैं बेहद कसक बन 
और नाउम्‍मीदी में जगाती उम्‍मीद भी 
पर उम्‍मीदों में बेउम्‍मीद कर जाने का शगल हैं पाले हुए 


कहीं कोई सदा है हमारे लिए 
कोई झनकार 
या फिर हलकी - सी खनक ख़तरे की 
कि मौत आए और ख़ामोशी की एक नींद मिले बेहतर 
या कि ख़ौफ़जदा हम मुकर जाए दहशत के ख़याल से 
ख़ुद को हिम्‍मतवर कहलाने के लिए 


ये आवाज़ किसकी है कि सरकता जा रहा है 
रिश्‍ते - नातों का सारा पानी 
मचलते पानी के तेज़ बहाव में तलहटी के रेत की तरह 
तुम भी आना हम भी आऍंगे 
क़तल किसी का भी हो 
पुकारना ज़रूर 
एक बार उम्‍मीद 


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1 टिप्पणी:

शरद कोकास ने कहा…

बहुत बढ़िया कविता है उत्तम ।

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